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Thursday, 17 July 2014

गुमशुदा

टिलेपर चलता है कभी जो चिटींयोंका रेला...
हर एक चलती रहती है कतार में...
दो-चार होती है साथ... फिर दो-चार के बाद..
जनाजें मे चलते है लोग जैसे....
दो-चार होते है साथ... फिर दो-चार के बाद...
न कोई बात होती है ... न कोई खास एहसास...
बस्स फर्ज निभा रहे हो जैसे...
कोई बांज अपने शौहर के साथ...

उस रेले मे कोई एक पागल... उलटे कदम चलती है...
भुलके अपनी राह ... न जाने किसे धुंडती है...
कर रहा हो खोज कोई ... अपने गुमशुदापन की...
वैसे हि हर किसी को कुछ पुछके...
परेशान सी भाग रहि होती है...

युंहि धुंडता फिरता हूं मै भी खुदको...
अब तो आईने भी पहचान नहि देते...
मुह फेर लेते है लोगो कि तरह...

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