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Monday, 23 September 2013

कील !!



हाथ लगाकर बारबार देखा ....सीने पर...|
बडा दर्द उठ रहा है ... रहरहकर ||

शायद कोई छोटीसी कील धस गई हो |
और दिल तक आके रूक गई हो ||

लाल लोहे कि ये शायद बहोत तेज कील है |
जो बाहर से दिल धिरे धिरे चिर रहि है ||

शायद कोई अरमान टुट गया हो |
शायद कोई सपना जखमी हो गया हो ||

खुन रिस रहा होगा किसी उम्मीद से कहि...|
या शायद किसी की यादें दम तोड़ रहि है कहि......||

मैं अन्दर हि अन्दर कट रहा ह़ू |
और बाहर उसके निशाँ ...तक रहा ह़ू ||

खैर जब कभी ये कील निकलेगी |
तो चिरे हूवे अरमानो से ये ... एक बार फिर गुजरेगी...|
काटते हूवे सपनो के जिस्म ... फिर खुन नहायेगी....||

पर सच कह़ू तो इस दर्द मे भी एक नशासा है|
 खुश्क है होंट फिर भी मन भरासा है ||

सोचता ह़ू रहने दु ईसे भी दिल में कहि अपना बनाकर|
चिरती रहे येभी... कीसी की यादों की तरह कांटा बनकर||
रुलाती रहें येभी मुझे उसकी याँदो के साथ साथ|
ताकि उसकी याँदो को भी तसल्ली रहे... कोई तो है यहाँपर उनके साथ||
ताकि उसकी याँदो को भी तसल्ली रहे... कोई तो है यहाँपर उनके साथ||

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